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पहली बार निर्यात आंकड़ा पंहुचा 10000 हजार करोड़ के पार –पढ़े कारपेट कोम्पक्ट का नया अंक ;

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10 Jul 2011

सुंदर कालीन -क्या यही है मजदूरी

 


सुंदर कालीन -क्या यही है मजदूरी  भारत के पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी  ने भारत सुंदर कालीनो को देखकर
 कहा था- कि ये हाथ गुथी हुई कविता है ,हम इन कालीनो कि सुंदरता देखकर
 को सोचते है कि इसमें काम करने वालो का जीवन भी सुंदर होगा इस उद्योग में लगे  मजदूर भी अपने परिवार का बेहतर जीवन यापन कर रहे होगे |
 इन मजदूर  से काम लेने वाले निर्यातक भी कहते है  वे ३ हजार करोड़ के निर्यात से  ३० लाख लोगो को रोजी रोटी देते है |
 लेकिन इस दावे के के लिए  इस चार्ट पैर गौर करे कि जिसमे सिर्फ कुल
 निर्यात में मजदूरों कि संख्या से भाग दिया गया है जिसमे कालीन  का निर्यात मूल्य 
 का ४० फीसदी मजदूरी जोड़ी गयी है |
Total export (gov of India)
Total labuor and artizen
Total income per year export/total labour
Per day Pay of labour /artizen 40% of export rate
3 thousand caror
30 lakhs
10 thousand
11 rupees per day
,, ,, ,,
20 lakhs
15 thousand
17 rupees per day
,, ,, , ,
10 lakhs
30 thosuand
33 rupees per day
, , ,, ,,
5 lakhs
60 thousand
66 rupees per day
,, ,, ,,
4 laks
75 thosand
83 rupees per day
सुंदर   ३० लाख मजदूरों को रोजी रोटी का दावा करने वाले निर्यातक रोजगार देने के नाम सरकार से                                                अकसर रियायतो कि मांग करती है वही सरकार भी उद्योग १५ लाख से २० लाख मजदूरों को इस हस्त कला उद्योग में रोजगार देने के आकड़े पेश करने से
 पीछे नहीं हटती है लेकिन सरकार ने कभी इन मजदूरों के हालत जानने कि कोसिस नहीं की  पश्चिमी देशो के आयातक जो तमा म   मानवाधिकार कि बात करते है मजदूरों को पूरी मजदूरी मिलनी चाहिए |
श्रम कानूनों का पालन होना चाहिए जी बाते विश्व के मंचों पैर उठाकर गरीब देशो पैर दबाव बनाते वो
 भी निर्यातको से सस्ते से सस्ता कालीन खरीदने के कोई कोर कसर नहीं छोटते है लेकिन आज भदोही
 का बुनकर पलायन कर गया है निर्यातक अपने कालीन निर्माण के लिए परेशान है | कालीन के परिचेत्र
 कुछ गाव में जाने पर यह सच्चाई दिखाई देती है भदोही कालीन परिचेत्र एक जमुआ गाव में ४० वर्षों से काम कर सुभाष ने अपने बच्चो काम के लिए
 मुंबई भेज दिया है !एसे ही भदोही से मिर्जापुर से सटे हजारों गावो वर्षों से कालीन कारीगरों ने अपने बच्चो को इस काम में लगाने बजाय दूसरे कामो लगा दिया है ! इसी कारण तीन हजार करोड़ रुपय के परपरागत भारतीय कालीन उद्योग में मजदूरों की कमी के चलते संकट का सामना करना पड़ रह है ! उद्योग जहा कालीन बुनकरों की नई खेप के लिए सरकार से प्रशिक्षण दिलाने के लिए ट्रेंनिग सेन्टर चलाने की कवायद कर रही है वही कम मजदूरी के चलते बुनकर इस उद्योग मे काम करने के लिए तैयार नहीं है! उद्योग में लगे मजदूरों का कहना है की इस उद्योग में काम करके के दो जून की रोटी भी मय्यसर नहीं होती है! ऐसे में रोजी रोजगार के लिए परदेश जाकर या मनरेगा में कम करना ज्यादा बेहतर है ! जब मैंने इस बात की तह जाने कोशिश की तो चौकाने वाले सच सामने आये !सरकारी और गैर सरकारी आकडे का विश्लेषण करे तो ३ तीन हजार करोड के इस उद्योग में २० लाख लोग जुड़े है यदि इसमे जुड़े सभी लोगो की एक सामान मजदूरी दी  जाये तो एक आदमी के पास १००० रुपये है जाते इसमे कच्चे मॉल की खर्चे निकल दे तो मजदूरों के पास इसका ४०% प्रतिसत ही पहुचता है १७ रुपये प्रतिदीन या सिर्फ ५०० रुपये महीने कालीन निर्यात संवर्धन परिषद के अध्यछ ओ पि गर्ग के अनुसार अनुसार इसमे ३० लोग जुड़े है जिसमे १० लाख बुनकर २० लाख भेढ़ पालन से लेकर अन्य काम करते तो तो एक आदमी के  पास ३३३ रुपये की मजदूरी मिलती है ! एक व्यक्ति के पास प्रतिदिन ११ रूपया ही मिलता है ये आंकडे और भी कम हो जाते यदि इसमे जुड़े कालीन निर्यातक , शिपिंग , ठेकेदार , दलाल आदि की कमाई को निकल दिया जाये तो यह आंकड़ा और ही कम हो जायेगा ! कालीन बुनकरों का कहना है की इसमे काफी हिसा इनके पास चला जाता  एक बुनकर का कहाँ है लंबे समय से हम कम मजदूरी में कम करते रहे तब हमारे पास कोई विकल्प नहीं था आज मिल रहा वही संचार साधन और यातायात की बेहतर सुबिधा के कारन देश विदेश का  हाल जानने वाले व्यक्ति अपने काम के बेहतर मूल्य के लिए कही और जाना पसंद करेगा मनरेगा में १2० रूपया की जगह कोई १७ रुपये में क्यों काम करेगा !कालीन निर्यातक कभी मानना है की मजदूरी कम है लेकिन आयातक से जो रेट मिलता है उसी में भुगतान करना पडता है ! कालीन उद्योग में लगे लोगो का मानना है की हस्त निर्मित कालीन बनाने का का कम ज्यादातर गरीब देशो में हो रहा है !उन देशो ने अपने यहाँ हस्तनिर्मित कालीन बनाना बंद कर दिया जो विकशित हो गए ऐसे में कालीन निर्माता देश और निर्यातक संघटित होकर आयातकों  से दाम  बदने की मांग करनी चाहिए ,या अन्य कोई विकल्प तलाश कर बुनकरों की मजदूरी  बढानी चाहिए ! सरकारी स्तर पर कालीन बुनकरों के लिए गठित वेतन वेतन समिति पर भी कालीन निर्यातकों कब्जा बना हुआ यही कारण हैकि लंबे समय से इसकी बैठक भी नहीं हो पाई | निर्यातकों द्वारा सरकार से मंदी के नाम पर मजदूरों को रोजगार देने के लिए पैकज मिलाती भी है तो  वह मजदूरों  तक नहीं पहुचता है|
संजय श्रीवास्तव
socialvision@aol.com

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